Skip to main content

Posts

"उम्र ग़ुजरेगी इम्तिहान में क्या " ग़जल ( जौन एलिया ) उम्र गुजरेगी इम्तिहान में क्या दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या मेरी हर बात बे-असर ही रही नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं यही होता है ख़ानदान में क्या अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं हम ग़रीबों की आन-बान में क्या ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से आ गया था मिरे गुमान में क्या शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़ तू नहाती है अब भी बान में क्या बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में आबले पड़ गए ज़बान में क्या ख़ामुशी कह रही है कान में क्या आ रहा है मिरे गुमान में क्या दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या वो मिले तो ये पूछना है मुझे अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या यूँ जो तकता है आसमान को तू कोई रहता है आसमान में क्या है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़...
Recent posts
"नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम" ग़जल (जौन एलिया) नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम। खामोशी से ही अदा हो रस्में दूरी तो हंगामा बरपा क्यूँ करें हम। ये काफी है के हम दुश्मन नहीं फिर वफादारी का दावा क्यूँ करें हम। वफा, इख्लास, कुर्बानी, मुहब्बत अब इन लफ्जो़ं का पीछा क्यूँ करें हम। जुलेखायें अज़ीजा बात ये है भला घाटे का सौदा क्यूँ करें हम। हमारी ही तमन्ना क्यों करो तुम और तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम। किया था अहद जब लम्हों में तो सारी उम्र इफा क्यूँ करें हम। उठा कर फेंक न दें सारी चीजें फक़त कमरों में टहला क्यूँ करें हम। नहीं दुनिया को जब परवाह हमारी तो दुनिया की परवाह क्यूँ करें हम। ब-रहना है सरे बाज़ार तो क्या भला अंधों से पर्दा क्यूँ करें हम। हैं बाशिंदे इसी बस्ती के हम भी तो भला खुद पर भी भरोसा क्यूँ करें हम। पड़े रहने दो इसांनो की लाशें ज़मीं का बोझ हल्का क्यूँ करें हम। चबा लें खुद ही क्यूँ ना अपना ढाँचा तुम्हें रात अब मुहैया क्यूँ करें हम। ये जो बस्ती है मुसलमानों की बस्ती है यह...